कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Friday, July 28, 2017

हमिंगबर्ड की समीक्षा : स्मिता सिन्हा के शब्दों में



" हमिंग बर्ड "
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कुछ किताब वक़्त की दस्तावेज़ होती हैं ,तो कुछ मन की और जब 5 मिलीग्राम का छुटकू सा मन अपनी बात करेगा तो क्या क्या करेगा !! वही सपनों की बातें ,अपनों की बातें ,ज़िंदगी की जद्दोजहद की बातें..........
बातें उलझनों की ,जकड़नों की........बातें मुक्ति के लिये छटपटाती सांसों की ,ताकि परों को मिल सके उनके हिस्से की उड़ान और बस एक टूकड़ा आसमान ।मेरे बेहद अजीज मित्र Mukesh Kumar Sinha का पहला काव्य संग्रह ' हमिंग बर्ड ' ऐसी ही स्पंदित भावनाओं का खाका है । हालांकि बहुत ही लम्बा वक़्त ले लिया मैंने इसे पढ़ने में, जबकि हिन्दी युग्म से प्रकाशित इस संग्रह का दूसरा संस्करण भी बाज़ार में आ चुका है ।खैर......
कहते हैं कविताएँ कभी शून्य में नहीं रची जातीं।उनमे अपने समकालीन हालात और सरोकारों के प्रति सजगता निहित होती ही है ।मुकेश मेरे सामने आपकी कविताएँ यूँ आती गयीं ,जैसे मैं स्वयं गुज़र रही हूँ शब्दों की कतार से ।आपकी कविताओं में एक राहत है और सुकून भी......सवाल हैं और झन्झावत भी ।थोड़े से शब्दों के साथ जीवन के विभिन्न आयामों में देखने का आपका प्रयास काबिलेतारीफ है ।आपके ही शब्दों में.....
क्योंकि कबूतर के फड़फड़ाते पंखों पर
उम्मीदों की ऊँची उड़ान
मुझे दे गया अपने हिस्से का
एक टूकड़ा आसमान
आज ख्वाबों में
शायद कल
होगा इरादों में
और फ़िर
वजूद होगा मेरा
मेरे हिस्से का आसमान......
कृत्रिमता और बनावट से दूर.......बेहद सरल और सहज भावनाओं की अद्भुत बानगी दोस्त ।शब्दों के साथ कहीं कोई आंतरिक प्रयोग नहीं ,कोई तोड़ फोड़ नहीं ।बस यहीं सम्प्रेषणियता बांधती है मुझे आपकी कविताओं से ।आपने उसी परिवेश ,परिस्थिति ,चरित्रों और सपनों का कोलाज तैयार किया ,जिनमें से हमारी जिंदगी भी झांकती है ।मानव मन को बड़ी प्रखरता से उद्घाटित करती हुई कविताएँ......जटिल से लगने वाले रिश्तों को बड़े कायदे से खंगालने की कोशिश ,ताकि उनपर कोई खरोंच न आये ।आप ही कहते हैं ना........
मैंने नहीं देखा
हमिंग बर्ड
अब तक
तो क्या हुआ !
मैंने प्यार और दर्द भी नहीं देखा
फ़िर भी
लिखने की कोशिश कर चुका उनपर
बन ही जाती है कविता........
मैं कहूँ कविता में कभी कोई नाप जोख ,हिसाब किताब ,नफ़ा नुकसान की बातें नहीं होतीं ।वो तो एक चाह होती है ,एक सब्ज ख़याल ,कुछ बातें वजह बेवजह की........और बन जाती है कविता ।रच जाते हैं शब्द ।आप भी तो मानते हैं...........
नींद के आगोश में आने से कुछ पहले
कौंध जाता है उसका चेहरा
और बस सीमित शब्दों में
रच जाती है कविता.....
कभी अंदर कुछ गिने चुने शब्द
खेल रहे होते हैं हाइड एंड सीक
और एकदम से कोई खास शब्द
बोल उठता है...धप्पा !
बस उतर जाती है मन में कविता.....
हाँ बस ऐसी ही तो होती है कविता ।कुछ बातें जो एक दोस्त होने के नाते कहना चाहूंगी ,आप इसे अन्यथा नहीं लेना ।मैं कोई आलोचना नहीं कर रही ।वैसे भी आलोचना मेरी फितरत में नहीं ,क्योंकि मुझे लगता है कि बेहतरी की गुंजाईश हर किसी में होती है । हममें और आपमें भी ।कोई भी पूर्ण नहीं होता ।पूर्णता का एहसास क्रियाशीलता और विकास को बाधित करता है ।यह आपकी पहली किताब है और हर लिहाज़ से बेहतरीन है ।लेकिन आपने पिछले कुछ वर्षों में इन कविताओं से भी बेहतर रचा है ।ज्यादा परिपक्व और गम्भीर लेखन किया है आपने ।आपको एक एक क़दम आगे बढ़ते देख रही हूँ मैं और यकीन जाने ये मेरे लिये सुखद एहसास है ।तो मैं यही चाहूंगी कि आप लगातार रचनाशील बने रहें ,सृजन करते रहें ,गढ़ते रहें सपनों को और बनाते रहें उनके लिये आसमान ।आपकी ऐसी बेवजह की कविताएँ कई कई वजहों वाली कविताओं से ज्यादा समृद्ध और सार्थक हैं ।
एक दोस्त को उसकी दोस्त की तरह से ढेरों शुभकामनाएँ 😊 

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