कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Thursday, March 2, 2017

हमिंग बर्ड की समीक्षा: डॉ. आदर्श मिश्रा के शब्दों में



शब्दों के चितेरे.......
मुकेश कुमार सिन्हा...
लेकर आये हैं रंग बिरंगे एहसासों से सजी
हमिंग बर्ड......
कभी देखी नहीं ये चिड़िया
अगर बच्चों की क़िताबों या वीडियो गेम्स में देखी हो तो पहचाना नहीं...पहचाना भी हो तो महत्व नहीं दिया
जैसी और हज़ारों चिड़ियाँ वैसी ही ये होगी क्यों महत्व देते हम..
पर जब इस क़िताब के बारे में पढ़ा सुना तो जिज्ञासा बढ़ी...
चिड़िया तो नहीं मिली पर क़िताब मिल गयी.....
पढ़नी शुरु की....हर शब्द में अक्श है मुकेश जी का...मानों हर कविता खुद ही बोलने लगी हो ...ऐसा तिलिस्म कि अगर पढना शुरु कर तो बस पढ़ते ही जाओ भटकते रहो शब्दों की भूलभुलैयों में.....
हमिंग बर्ड का छुटकू सा सिर्फ़ 5 m m का मन सच्ची मे पाँच मन का लगता है...भावों के भार का पार नहीं........
फिर आती है आवाज़....लेकर प्यार प्यार प्यार.... और मकान महक उठता है मोहब्बत की खुशबू से.......40. 50 का मध्य छू लेता है मन के तार...प्रेम कविता भटक जाती है मेट्रो की लाइफ में .....
..बचपन के केनवास पर उकेरे हुये हैं
दिल्ली ..सड़क और बूढ़ा वीर....
महीने की पहली तारीख़..उद्गार.. समय.
कुछ बताता स्पर्श...
नारी पुरुष की धुंधलकी सुबह
बताती है लाइफ की क्वालिटी..
एक टुकड़ा आसमान के लिये चढ़ता उतरता प्यार हाथ की लकीरों में संवरता है पगडंडी पर.....
कभी शेर सुनता बच्चा मचल जाता है फेस बुक पे...ओह ज़न्दगी सब बदल गया न.......
दीदी मैया हाइकू एक नदी का मर्सिया डीटीसी...ऐसा क्यूं होता है..... है.
दोस्ती का ...गणित मेरा शहर ....
मृत्यु ...उदास कविता
मनीप्लांट... फासला...अभिजात स्त्रियाँ. जैसे फुसफुसाती हैं मैन बिल बी मैन..
जूते के लेस में फँसी हथेली...ज्ञान विज्ञान स्वाभिमान से भरी अजीब सी लड़कियाँ...
डस्टबिन में पड़ा अखबार...
तकिये के प्रेम में खोया सिमरिया का पुल....
कोख से पकारती बेटी देखती खुली आँखों से सपने...
सड़क पर पड़ा बचपन कह उठता है मैं कवि नहीं हूँ.....................
दीदी...तो शायद मेरे लिये ही लिखी गयी है...न भी हो मेरे लिये पर मानने में..और मान कर इतराने में क्या जाता है.....
बिम्बधर्मिता के धनी मुकेश जी ने काव्य की टेढ़ी मेढ़ी संकरी गलियों में झाँक झाँक के अनोखे प्रतिमान गढ़े हैं....
विमुग्ध हो जाता है पाठक मन ....वो कवि के हृदय से समब्द्ध हो कर उसके साथ हँसता है ,रोता है, खिलखिलाता है, उदास होता है,स्नेह में भीगता है,ममता में डूबता है,जन जन की पीर सहेजता है और रोमांस में सराबोर भी हो जाता है....
जब सामान्य जन जुड़ जाये कवि के भावों से तो मान लो कि सार्थक हो गयी लेखनी....
अमर हो गयी कविता ...
और बिशिष्टतम हो गया कवि..... ......
1 से लेकर 110 तक चला ये काव्य का कारवां बिठाता है मुकेश जी को शीर्ष पर..... कविताओं के शब्द भावों की लय पर नृत्य करते हुये पहुँच गये हैं अपनी मंज़िले मक़सूद तक....
पर क़ाफ़िले कहीं थमते नहीं .....निरन्तर चलते रहना ही बैशिष्ठ्य है इनका.....
राहें पलक पाँवड़े बिछाये हैं कि अभी और.... अभी और.... अभी और.....
DrAdarsh Mishra

No comments:

Post a Comment