कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Wednesday, March 29, 2017

कसक

गंभीर मैदान के गोद में आने से पहले नदी कई बार गिरती टूटती और बिखरती है| ये अपराध नहीं, अनुभव है !
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जीवन का स्तर पहचानने की कोशिश करते हुए, मंथर होकर बढ़ने की कोशिश ही बेहतर है एक औसत व्यक्ति के लिए | बेशक पीछे न रह जाएँ, ये डर भी सालता है :), वैसे ताजिंदगी बैक बेंचर रहे ये बताने में भी गुरेज नहीं ।
ये भी सच ही है कि फेसबुक की लोकप्रियता का प्रभाव असल जीवन में नगण्य से भी कम जैसा है, कल ही एक मित्र ने बड़े सिलसिलेवार ढंग से लिखा था । हजारों के लिस्ट में 5-10 लोग फेसबुक पर बेस्ट फ्रेंड्स के टैग के साथ दिखते हैं या जताते हैं और हमें लगता है हर अच्छे-बुरे समय का साथी मिल गया, पर सच्चाई बिलकुल इतर होती है, कोई भी तब तक ही मित्र है जब तक किसी वजह या बेवजह से फ्रेंड्स वाले बटन पर फिर से क्लीक नहीं करते, क्योंकि वहीँ कुछ और ऑप्शन भी हैं, जैसे क्लोज फ्रेंड का या रिस्ट्रिक्टेड का या फिर अन फ्रेंड करने का। :)
'फेसबुक सेलिब्रिटी' का टैग लिए भी ढेरों शख्सियत आजकल पोस्टर तक बनाने लगे, जैसे कह रहे हों - समोसे खाओ, लाइक्स आने की सम्भावना बढ़ जायेगी। पेड-समीक्षाओं का दौर है, कुछ खास साहित्यिक गुट के लोगों में अगर आपमे उनके अनुसार गुण दिख गया, तो समझो आपका झंडा फहर गया, वरना जो भी लिखोगे, उसपर कूड़ा का टैग देने वाले लोगो की कमी नहीं, या फिर प्यार से किसी एक दिन कहेंगे अब तक की बेहतरीन कविता। यानी, इस खास पोस्ट पर उन्होंने कमेंट कर एक झटके में आपके पहले लिखे समूचे साहित्य को कबाड़ी के यहाँ बेचने कह दिया हो। :D
सच्चाई है कि हर व्यक्ति की पहचान रियल वर्ल्ड से ही बनती है, मेरी पहचान असल जीवन में सिर्फ मेरे ऑफिस कमरे के 5 या दस लोगो तक सीमित है, और वो भी इनदिनों जब से जानने लगे हैं, वक़्त बेवक्त ताना मारते हैं - और कैसे हो कॉपी पेस्ट कवि ! यानी कवि होना तो दूर एक सच्चे दोस्त बने रहने या पाने का मुगालता भी खुद में नहीं पाल सकता, इंसान क्या ख़ाक बनूँगा ! ;)
ओवरऑल, अनुभव कह रहा बहुत हुआ दोस्ती-वोस्ती का नाटक, फिर से वही कैंटीन या ऑफिस टेबल या किसी चाय के ढाबे पर कटिंग चाय के साथ बैठने वाले दोस्तों का साथ ही सबसे बेहतर है, फिर विथोउट सेंसर गालियाँ बको, या आर्थिक-राजनितिक मुद्दों पर थानवी साहब बन जाओ या नहीं कुछ तो पार्टियों का प्रोग्राम फिक्स करो ! बेशक न माने, पर उन कुछ ख़ास दोस्तों के बीच कभी सिकंदर हुआ करता था, जो समय के साथ फेसबुक ने ही लील लिया!
हाँ लौटना ही होगा, वर्ना कसक रहेगी .....ताजिंदगी !!


Thursday, March 2, 2017

हमिंग बर्ड की समीक्षा: डॉ. आदर्श मिश्रा के शब्दों में



शब्दों के चितेरे.......
मुकेश कुमार सिन्हा...
लेकर आये हैं रंग बिरंगे एहसासों से सजी
हमिंग बर्ड......
कभी देखी नहीं ये चिड़िया
अगर बच्चों की क़िताबों या वीडियो गेम्स में देखी हो तो पहचाना नहीं...पहचाना भी हो तो महत्व नहीं दिया
जैसी और हज़ारों चिड़ियाँ वैसी ही ये होगी क्यों महत्व देते हम..
पर जब इस क़िताब के बारे में पढ़ा सुना तो जिज्ञासा बढ़ी...
चिड़िया तो नहीं मिली पर क़िताब मिल गयी.....
पढ़नी शुरु की....हर शब्द में अक्श है मुकेश जी का...मानों हर कविता खुद ही बोलने लगी हो ...ऐसा तिलिस्म कि अगर पढना शुरु कर तो बस पढ़ते ही जाओ भटकते रहो शब्दों की भूलभुलैयों में.....
हमिंग बर्ड का छुटकू सा सिर्फ़ 5 m m का मन सच्ची मे पाँच मन का लगता है...भावों के भार का पार नहीं........
फिर आती है आवाज़....लेकर प्यार प्यार प्यार.... और मकान महक उठता है मोहब्बत की खुशबू से.......40. 50 का मध्य छू लेता है मन के तार...प्रेम कविता भटक जाती है मेट्रो की लाइफ में .....
..बचपन के केनवास पर उकेरे हुये हैं
दिल्ली ..सड़क और बूढ़ा वीर....
महीने की पहली तारीख़..उद्गार.. समय.
कुछ बताता स्पर्श...
नारी पुरुष की धुंधलकी सुबह
बताती है लाइफ की क्वालिटी..
एक टुकड़ा आसमान के लिये चढ़ता उतरता प्यार हाथ की लकीरों में संवरता है पगडंडी पर.....
कभी शेर सुनता बच्चा मचल जाता है फेस बुक पे...ओह ज़न्दगी सब बदल गया न.......
दीदी मैया हाइकू एक नदी का मर्सिया डीटीसी...ऐसा क्यूं होता है..... है.
दोस्ती का ...गणित मेरा शहर ....
मृत्यु ...उदास कविता
मनीप्लांट... फासला...अभिजात स्त्रियाँ. जैसे फुसफुसाती हैं मैन बिल बी मैन..
जूते के लेस में फँसी हथेली...ज्ञान विज्ञान स्वाभिमान से भरी अजीब सी लड़कियाँ...
डस्टबिन में पड़ा अखबार...
तकिये के प्रेम में खोया सिमरिया का पुल....
कोख से पकारती बेटी देखती खुली आँखों से सपने...
सड़क पर पड़ा बचपन कह उठता है मैं कवि नहीं हूँ.....................
दीदी...तो शायद मेरे लिये ही लिखी गयी है...न भी हो मेरे लिये पर मानने में..और मान कर इतराने में क्या जाता है.....
बिम्बधर्मिता के धनी मुकेश जी ने काव्य की टेढ़ी मेढ़ी संकरी गलियों में झाँक झाँक के अनोखे प्रतिमान गढ़े हैं....
विमुग्ध हो जाता है पाठक मन ....वो कवि के हृदय से समब्द्ध हो कर उसके साथ हँसता है ,रोता है, खिलखिलाता है, उदास होता है,स्नेह में भीगता है,ममता में डूबता है,जन जन की पीर सहेजता है और रोमांस में सराबोर भी हो जाता है....
जब सामान्य जन जुड़ जाये कवि के भावों से तो मान लो कि सार्थक हो गयी लेखनी....
अमर हो गयी कविता ...
और बिशिष्टतम हो गया कवि..... ......
1 से लेकर 110 तक चला ये काव्य का कारवां बिठाता है मुकेश जी को शीर्ष पर..... कविताओं के शब्द भावों की लय पर नृत्य करते हुये पहुँच गये हैं अपनी मंज़िले मक़सूद तक....
पर क़ाफ़िले कहीं थमते नहीं .....निरन्तर चलते रहना ही बैशिष्ठ्य है इनका.....
राहें पलक पाँवड़े बिछाये हैं कि अभी और.... अभी और.... अभी और.....
DrAdarsh Mishra