कविता संग्रह "हमिंग बर्ड"

Thursday, December 24, 2015

हम्मिंग बर्ड: मृदुला प्रधान व रश्मि प्रभा के शब्दों में

दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल 2015 का मंच, खुबसूरत  अभिनेत्रियों  के  साथ
१.
मुकेश कुमार सिन्हा की 'हमिंग बर्ड' आज ही मिली और एक बार जो खोली तो रुकने का मन ही नहीं किया……पूरा पढ़कर ही उठी . मिट्टी के ग्लास में जो कभी चाय मिल जाती है तो पहली घूँट भरते ही अनायास ही मुँह से निकलता है वाह! बस यही हुआ पहला पेज पढ़ते ही ……सरलता, सहजता और सरसता के आवरण में लिपटी हुई कवितायेँ बड़ी कोमलता के साथ मन तक पहुँचने की क्षमता रखती हैं. एक ओर कवि का '5 मिलीग्राम का छुटकू-सा 'मन'' है और दूसरी ओर 'बहुत-सी बेवजह की कविता ,ज़िंदगी के हर रूप की कविता' लिखने की ख़्वाहिश और इन सबके बीच सच्चाई और सहृदयता का हाथ थामे हुये उनका अदम्य उत्साह बार- बार सामने आ जाता है . मुकेश जी बोल-चाल की भाषा के स्वभाविक कवि हैं ,ललक है आगे बढ़ने की और कलम में बेहिसाब ताकत .......निश्चय ही आनेवाले समय में नई-नई ऊँचाईयों को छुयेंगे ,ऐसा मेरा विश्वास है.......शुभकामनाओं के साथ.......

- मृदुला प्रधान 


२. 
ओह ये हमिंग बर्ड !!!
मेरे घर आई 
चहचहाई 
पढ़ने बैठूँ 
उससे पहले तबियत खराब हुई !
खाँसी, बीपी,बुखार …
सब हो गए हैं बिग बॉस के आर्टिस्ट
smile emoticon - एकदम पुनीत इस्सर
हिम्मत देखो इस चिड़िया की
चहचहाए जा रही है
इस कमरे से उस कमरे
मुकेश की लगन की उड़ान भर रही है
कह रही है,
अमां यह तो बस शुरुआत है 


-  रश्मि  प्रभा 
दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल 2015 का मंच, पोएट ऑफ़ द इयर का अवार्ड लेते हुए
 

Thursday, December 10, 2015

चौथा दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल 2015


कल 10.12.2015 को कनाट प्लेस के पास जंतर मंतर के  सामने NDMC के खचाखच भरे कन्वेंशन सेंटर में चौथे दिल्ली इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल 2015 (DIFF 2015) का "पोएट ऑफ़ द इयर/इंडिया" का अवार्ड मिला !

कल सुबह तक कुछ भी नही पता था !
चूँकि मैंने इन्हें अपनी कवितायेँ भेज रखी थी और उनमे से एक उनकी ऑफिशियल  साइट पर चयनित हो कर पोस्ट भी हो रखी थी और ये हर बार एक कविता गोष्ठी भी करते थे तो मैंने कई बार इनके अध्यक्ष/संयोजक Parcha​ जी को फोन कर ये जानने की कोशिश की कि गोष्ठी कब है, पर बहुत ठंडा रेसपोंस मिला | कल सुबह मेसेज मिला "आज दो बजे आइये और कोट पहन कर आइयेगा" !

मुझे लगा कविता पढ़ने बुला रहे, मैंने अपने 2-4 मित्रों को गोष्ठी के लिए कह भी दिया लेकिन पहुँचने पर अनुभव हुआ कविता गोष्ठी थी ही नही अवार्ड वितरण समरोह था !

इंटरनेशनल फ़िल्म फ्रेटर्निटी के ढेरों लोग जमा थे | इजिप्ट, रूस, बुल्गारिया, अफगानिस्तान, इजरायल आदि के अम्बेसडर व एम्बेसी के लोग तथा तथा बेहद खूबसूरत कलाकारों की रौनक से पूरा सभागार चमक  रहा था ! अजीब सा पॉश माहौल था !

इस बीच सबसे शुरूआती अवार्ड पोएट्स के लिए थे और इसके दो श्रेणी थे - इंडिया तथा एनआरआई !!

एनआरआई श्रेणी में ये पुरस्कार दुबई से आई Pallavi Srivastava​ को मिला और फिर भारत के श्रेणी में मेरा नाम पुकारा जाना आश्चर्यचकित करने वाला था !

सब कुछ आश्चर्यजनक ढंग से हुआ ! हिंदी से बाहर की दुनिया में हिंदी के लिए पुरस्कार पाना कहीं अंदर तक गर्व का अनुभव दे रहा था !

DIFF 2015 का आयोजन द सोशल सर्किल ने दिल्ली सरकार और एन डी एम सी की सहयोग से किया जिसका उद्घाटन 5 दिसंबर को माननीय उपमुख्य मंत्री मनीष सिसोदिया ने सेंट्रल पार्क, सीपी में किया था !

इंटरनेशनल फ़िल्म फ्रेटर्निटी के सामने अवार्ड लेना बता नही सकता कैसा लगा ! "टॉप ऑफ़ द वर्ल्ड" की फीलिंग क्या होती है उस समय तालियों की गड़गड़ाहट बता रही थी :-)

ये साईट का लिंक रहा: दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल 2015



Friday, November 27, 2015

सुरेश टेलर के शब्दों में : हमिंग बर्ड



प्रेम पत्र....हां एक एेसा प्रेम पत्र जो जीवन चक्र की दास्तां बयां करें। हर पहलू को जैसे एक सुंदर सी नायिका ने अपने खूबसूरत हाथों से छू लिया हो। जिसके लबों की लाली हमें केसरिया सवेरे में ले जाती है....उसके लहराते बालों की सरसराहट कई रंग बिखेर जाती है....काली सी आंखों की मस्ती हमें सुरमई शाम में डूबो देती है। सुबह जूते के लेस बांधने से लेकर रात को तकिये तक साथ निभाती मस्ती भरी हलचल चढ़ते-उतरते प्यार में भिगो जाती है।

एक एेसा प्रेम पत्र जिसमें जिंदगी के अहसास को इतनी तन्मयता से लिखा गया है कि हर पल अपना सा लगता है। एक पंछी जो दिल के हर कोने में सफर करके खुले आसमां में उड़ने लगता है। हां एेसा ही है ये हमिंग बर्ड। मुकेश कुमार सिन्हा जी की कलम से सुशोभित ये प्रेम पत्र पढ़ना जीवन की रंगीनियों का शुद्ध..और मीठा सा अहसास कराता है।

दिल से निकले सिन्हा जी के इन हंसीं..प्यार के हर पल से तरबतर...जीवन के हर पहलू से लबरेज हमिंग बर्ड को जरूर पढ़िएगा....देखिये प्यार हो ही जाएगा।

- सुरेश टेलर 


Tuesday, October 27, 2015

हमिंग बर्ड की समीक्षा: अलका शर्मा के शब्दों में


अलका शर्मा जी 

मुकेश कुमार सिन्हा का कविता संग्रह हमिंग बर्ड एक आम इंसान केमन की पीडा,कसक और विद्रोह की प्रभावशाली अभि व्यक्ति है।समाज में घटितविसंगतियों पर इंसान की महत्वाकांक्षाओं पर,अपने चारों तरफ घटित घटनाओं पर पैनी नजर और कभीअपनी ही अनदेखी पर विक्षोभ होना लगता है कि जैसे हमिंग बर्ड सुदूर आकाश मेंउडान भरती हुई जीवन की हर छोटी बडी घटना पर उद्वेलित हा कवि के ह्रदय को आलोडित कर मजबूर कर देती है कि वो कभी डस्टबिन तो कभी 'जूते के ले स' 'अभिजात स्त्रियाँ' और कभी अपनी प्रेयसी पर कुछ कहने को आतुर दिखता है। इंसान की रोजमर्रा की जिंदगी का एक एक पल जैसे मुकेश जी ने साकार प्र.स्तुत कर दिया है। सबसे बडी विशेषता उनकीआम बोलचाल की भाषा है जिसमें अंग्रेजी केशब्दों को भीबहुत सहजता व सरलता से प्रयोग किया है और भाषा कोबहती नदी सा सहज प्रवाह दिया है।
साधिकार तथा प्रभावशाली भावामिव्यक्ति के बावजूद कवि द्वारा स्वयं कहना कि 'मैं कवि नहीं हूँ'उनके'पांच मिलीग्रामछुटकू'से मन की विशालता ही सिद्ध करता है।मे री शुभकामना है कि हमिंग बर्ड जन जन तक पहुंचकर मुकेश जी को सर्वप्रिय बनाने में सहायक हो।
हमिंग बर्ड
भरे ऊंची उडान
जग में नाम।

लोकायत के संपादक बलराम सर 



Thursday, October 15, 2015

प्रतिलिपि कविता सम्मान 2015




प्रतिलिपि कविता सम्मान 2015 के अंतर्गत चयनित मेरी दो कविता "पहला प्रेम" और "मैं कवि नहीं हूँ" के शीर्षक से, उनके साईट पर पोस्ट हुई हैं जिनको आपका प्यार, लाइक और कमेंट की अत्यधिक जरुरत है !! मैं ही विजयी रहूँ, ये तो सोच भी नहीं सकता, क्योंकि मेरे अलावा और सबों की कवितायेँ विशिष्ट हैं, फिर भी मित्रतावस बस इत्ती सी उम्मीद की लाइक और कमेंट करें !! अगर पोस्ट शेयर कर वाइरल करने में सहयोग करते हैं तो आपका प्यार हर समय याद रखूँगा .............. अग्रिम शुक्रिया ....


लिंक ये रहा...:


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लाइक/रेटिंग/कमेंट्स करने के लिए लॉग इन करें, यानि खुद को रजिस्टर करें, ......इतना तो कर ही सकते हैं न !


कर भी दीजिये


(बधाई नहीं , सहायता चाहिए )

Thursday, October 8, 2015

प्रवेश सोनी के शब्दों में हमिंग बर्ड



दैनिक जागरण में हमिंग बर्ड  से छपी खबर

पुस्तक मेले दिल्ली से फेसबुक मित्र मुकेश कुमार सिन्हा की किताब "हमिंग बर्ड " खरीदी कविता संग्रह है बहुत साधारण और सरल भाषा में लिखी जीवन की विसंगतिया ,संघर्षमय मानवीय आह्सासो का चित्रण हैदिल्ली शहर की भागती दोड़ती जीवन शेली से ना जाने कितने विषय उठाकर उन्हें संवेदनाओ के रंग में रचा है रिश्तों के बहुरूप उकेरे है मन की कोमल भावनाओ से उन्हें सजाया भी है |कुछ उदास कविताये भी लिखने की कोशिश की मगर जीवन की सकारात्मकता को सहज कर उसमे भी हास्य का पुट दिया |

मुझे मुकेश के लेखन की एक बात अच्छी लगती है की वो विषय कोई भी साधारण चुने लेकिन उसमे जो सन्देश देते है वो मन में दबी संवेदनाओ की परत को छू लेता है |

शुभकामनाये Mukesh Kumar Sinha ...आपका लेखन नित्य निखरता रहे !


माला सिंह जी के हाथों में हमिंग बर्ड 


Monday, September 21, 2015

बड़ी गंभीर सी सोच मैंने आम हिन्दुओं में  देखी है जिसमे मैं भी शामिल हूँ शायद !!

हम अपने को, अपने कौम  को सबसे बड़ा  राष्ट्रभक्त समझते हैं, बेशक हम कुछ भी करें....... गलती करेंगे तो सजा पाएंगे,  न्याय व्यवस्था है यानि कि एक  सच्ची सोच  है अपने लिए  !!

इससे  भी  अच्छी बात तब होती है कि जो भी भारतीय मुस्लिम नाम कमाता हुआ बड़ा चेहरा नजर आता है  उसमे  भी हम हिन्दू  छवि  देखते हैं, उसमे अपने बिरादरी सी फीलिंग  आती है, तभी  तो आज कलाम साहब सबसे बड़े  राष्ट्र भक्त नजर आते हैं, और ये सच भी  है !! यहाँ  तक  कि सानिया मिर्जा पर सिर्फ  इस  बात  पर गुस्सा आता  है कि उसने पाकिस्तानी से  शादी  की, वो बढ़िया खेलती है इसलिए खेल  रत्न देते हैं, उसके विजय  पर खुशियाँ  मनाते हैं, नियम के  अनुसार  उसमे हमें  पाकिस्तानी नजर आना चाहिए पर नहीं....... हम सहिष्णु हिन्दू भारतीय  हैं,  हमें मिल  कर  रहना आता है !! सलमान "बीइंग ह्यूमन" हमारे  लिए  हर  समय रहेगा !! उसमे हम हर  समय बजरंगवली तक देख लेंगे !!

पर फिर  दिक्कत कहाँ हैं ?
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दिक्कत हमें आम गरीब या साधारण जीवन जीने वाले मुस्लिमों से होने लगती है, उसमे पाकिस्तान देखने लगते हैं !! तब ये नहीं हम सोच पाते  ये  भी भारतीय हैं, गलती  करेंगे  तो न्याय व्यवस्था के तहत अन्दर ये  भी जायेंगे !! एक गलत के  कारण पुरे कौम को कोसने से क्या मिलेगा !!

एक कतरन मेरे साझा संग्रह के विमोचन की

Monday, September 7, 2015

बलजीत कौर के शब्दों में हमिंग बर्ड

बलजीत कौर के हाथों हमिंग बर्ड 


एक चिट्ठी अपने मित्र के नाम

       दोस्त तुम्हारी किताब 'हमिंग बर्ड 'मेरे हाथ में 50 दिन पहले आई थी उसी शाम ख़ुशी से उसे हाथ में लेकर पढ़ने भी बैठ गयी लेकिन दूसरे ही पेज पर

"
दीदी-नीटू : लड़ते प्यार करते ,साथ छोड़ गए"

       पंक्तियों को पढ़ते ही आँखों से अविरल अश्रु धारा बह निकली ,क्योकि इस से 15 दिन पूर्व हमने अपना नन्हा बच्चों जैसा देवर खोया था| बस फिर क्या था किताब सिरहाने रख दी |

      उसके बाद रोज़ उस किताब को उठाती लेकिन खोलने की हिम्मत न जुटा पाती|
कभी कभी ज़िंदादिल दिखने वाला इंसान भी दर्द से भीतर से खोखला हो चुका होता है| खैर कल हिम्मत करके इस किताब को उठाया और फिर तो रात तक पूरी ही पढ़ डाली | दोस्त तुम्हारे 5 मिलीग्राम के छोटे से मन ने मन भर वजन की रचनाएँ लिख डाली|
चालीस की उम्र की बात हो या बिटिया की बात,हर रचना दिल को छु गयी|
इसी तरह मनोभावों को लिखते रहो ये ही मेरी शुभकामना है|

और हाँ आज तुम्हारा जन्मदिन भी है मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करो

- बलजीत कौर 
कंचन गुप्ता, मुंबई के हाथों हमिंग बर्ड 

Thursday, September 3, 2015

वसुंधरा पाण्डेय के शब्दों में हमिंग बर्ड




इधर पांच महीनो में बहुत सी किताबें अनगिन पत्र पत्रिकाएं इकट्ठी हैं / कुछ पारिवारिक समस्याओं की वजह से पढ़ नही सकी / अभी कल से शुरुआत की तो मन हुआ कि हमिंग बर्ड से शुरुआत करूँ.. ..

Mukesh Kumar Sinha का कविता संग्रह 'हमिंग बर्ड' जिसमे मन की छटपटाहट/मनुष्य मन के संघर्ष/ और मानवीय एहसास से लबरेज है ! और इसमें समाहित है संजीदगी / चुहल/ प्रेम और निष्ठा से भरा पूरा एक संसार !
इस पुस्तक को पढ़ना सुखद है ..क्यूंकि मेरे मन मस्तिक पर घोसला बना लिया हमिंग बर्ड ने ... 

मुकेश जी का साहित्य संसार विस्तृत हो.अनेकानेक शुभकामनाये..! 



Friday, August 28, 2015

शब्द जो सहेजा हुआ है

ऑरकुट के जमाने में याद होगा testimonials हुआ करता था प्रोफाइल खोलते ही नीचे लगातार दिखते चले जाते  थे, ऐसे लगता था जैसे प्रोफाइल के लिए कैरेक्टर सर्टिफिकेट हो!!
जब ऑरकुट दुनिया से विदा लेने लगा तो इन testimonials का स्नेप शॉट लेकर मैंने एक एल्बम बना लिया, इस लिंक पर  सहेजा हुआ  है !!

एल्बम ऑरकुट testimonials का

2011 में रश्मि प्रभा दी ने ऐसे ही एक ब्लॉग बना  कर उस पर बहुत से  ब्लोगर्स के  लिए शब्द  दिए, तो obvious था, मेरे लिए भी लिखती, पर खास  ये था, की उस  पर 50 लोगो के कमेंट्स थे, और हर कमेन्ट से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता हूँ, ......कल बहुत दिनों बाद, घूमते हुए  वहां  पहुंचा तो सहेजने की इच्छा हो  गयी, और हाँ तुकबंदी से ज्यादा मेरे पास कुछ नहीं होते थे तब भी, अब  भी वही हाल है  ! रश्मि दी के शब्द:

जब मैंने इन्टरनेट का प्रयोग करना शुरू किया और ऑरकुट प्रोफाइल बन गया तो मेरे बच्चों के बाद मेरा पहला ऑरकुट दोस्त बना ' मुकेश ' . इन्टरनेट तो मुझे यूँ भी जादूनगरी लगी और नगरी में मुकेश ने बड़े प्यार से मुझे दीदी कहा . इतना मज़ा आया कि पूछिए मत .... उसकी कम्युनिटी थी ' JOKES, SHAYERIES & SONGS![JSS]' और मेरी 'मन का रथ' .... शुरुआत में वह मेरे हर लिखे पर कहता - ' कुछ नहीं समझे , कितनी बड़ी बड़ी बातें करती हो ...' पर एक बार उसने कहा -'दीदी मेरा मन कहता है तुम बहुत आगे जाओगी...' ..... जब भी मुझे कोई पड़ाव मिला मुकेश की यह बात मुझे याद आई . एक बार हमारी लड़ाई भी हुई , न उसने मनाया न मैंने - लेकिन रिश्ते की अहमियत थी , हम फिर बिना किसी मुद्दे को उठाये उतनी ही सरलता से बातें करने लगे !
फिर वह दिन आया जब मुकेश ने कुछ लिखा .... हर पहला कदम अपने आप में डगमगाता है , उसे भी खुद पर भरोसा नहीं था . पर मैंने कहा , लिखते तो जाओ ... और आज मुकेश की सोच ने शब्दों से मित्रता कर ली है और शब्दों ने उसे एक सफल ब्लॉगर बना दिया . अब ब्लॉग की दुनिया में उसकी अपनी एक पहचान है .
चुलबुला तो वह आज भी है , पर उस चुलबुलेपन के अन्दर एक शांत, गंभीर व्यक्ति है , जो हँसते हुए भी ज़िन्दगी को गंभीरता से समझता है .
कई बार हम ज़िन्दगी की ठोकरों से आहत कुछ लोगों से कतराते हैं, खुद पे झुंझलाते हैं - फिर अचानक हम बड़े हो जाते हैं और खुद से बातें करते हुए सुकून पाने लगते हैं कि यदि ज़िन्दगी यूँ तुड़ीमुड़ी न होती, अभाव के बादल घुमड़कर न बरसे होते तो जो खिली धूप आज है, वह ना होती !
मुकेश से मेरी मुलाकात 'अनमोल संचयन' के विमोचन में प्रगति मैदान में हुई , बोलने में शालीनता ,बैठने में शालीनता , चलने में शालीनता ...पूरे व्यक्तित्व में कुछ ख़ास था , जिसे शब्दों में नहीं बता सकती , ..... हाँ मुकेश का परिचय - संभव है , आपसे बहुत कुछ कह जाए -

४ सितम्बर १९७१, आनंद चतुर्दशी के दिन मेरा जन्म एक गरीब कायस्थ परिवार में बिहार के बेगुसराय जिला में हुआ था...! वैसे तो राष्ट्रकवि "दिनकर" का जन्म स्थान भी इसी जिले में है....:)...गरीब परिवार और छः भाई बहन में सबसे बड़ा होना...शायद मेरे जीवन में मेरे लिए एक अवरोधक की तरह था..उस पर ये भी पता नहीं था की पढाई क्यूं कर रहे हैं...! विज्ञान(गणित) में स्नातक(प्रतिष्ठा) प्रथम स्थान से उतीर्ण हुआ...क्योंकि घर वालो का मानना था की विज्ञान की पढाई ही सर्वश्रेष्ट है..!काश कुछ और विषय लिया होता..! बाद में ग्रामीण विकास में स्नातकोतर डिप्लोमा भी किया...! चूँकि नौकरी जरुरी थी...तो एक आम छात्र की तरह सामान्य ज्ञान को hobby की तरह अपना लिया..! इस कारण quiz में बहुत सारे पुरूस्कार मिले, all bihar quiz championship में एक बार runner - up भी रहा..! भाग्य का जायदा साथ न दे पाना और शुरू से आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होने के कोशिश के कारण भी जायदा कुछ अर्जित नहीं कर पाया...वो तो भगवन का शुक्र है की उम्र बीतने से पहले ही सरकारी नौकरी मिल गयी! सम्प्रति अभी कृषि राज्य मंत्री के साथ जुड़ा हुआ हूँ! मेरी जिंदगी मेरी पत्नी अंजू और दो बेटे यश और ऋषभ हैं...! रश्मि दी के द्वारा संकलित "अनमोल संचयन" में मेरी एक कविता प्रकाशित हो चुकी है....! बहुत बेहतर तो नहीं लिख पता हूँ..पर रश्मि दी के motivation से आज से तीन साल पहले ब्लॉग बनाया था.."जिंदगी की राहें" के नाम से...

मैं हूँ मुकेश कुमार सिन्हा ..
सरकारी नौकर ही नहीं ..कवि भी हूँ सरकार
विवाहित हूँ..और हूँ दो बच्चों का बाप..
खुशियाँ उनकी
बस इतनी सी है दरकार
सीधा सरल सहज..
साधारण सा हूँ इंसान..
सादगी है मेरी पहचान ....
नैतिक कर्त्तव्य ..
सामाजिक दायित्व..
इन सबका मुझे है भान
भावों की रंगोली सजाना
खुशियों के बीज बोना
.आनंद के वृक्ष उगाना
जीवन का है ये अरमान
बस इतना सा ही है मेरा काम.

मुकेश का ब्लॉग - जिंदगी की राहें

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ये शब्द इस  ब्लॉग से लिए गए हैं
शख्स मेरे कलम से 
(कल राखी है, तो याद आ गयी दीदी की बातें, वैसे इस पोस्ट पर और भी बहुत  सी दी सदृश मित्रों ने अपनी बातें  रखी है)


Friday, August 21, 2015

लघु प्रेम कथा - 8

#लघुप्रेमकथा - 8
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पहला दिन - पहला शो
"नदिया के पार" देखने गया था लड़का, कॉलेज बंक कर के, अकेले !
उफ़! भीड़ पर्दा फाड़ रही थी, सिनेमा हाल अटा पड़ा था !
टिकट मिलने का चांस जीरो बटा सन्नाटा!!
लौट ही रहा था कि लेडिज की कतार पर नजर पड़ी !!
चल एक आखिरी कोशिश!!
भीड़ भरे कतार में बचते बचाते धीरे से छह रूपये बढ़ाते हुए अपनी आवाज में सेक्रिन घोलते हुए मीठे स्वर में बोला - प्लीज! एक टिकट मेरी भी !! प्लीज !!
क्यूँ! आप मेरे मुंह बोले भाई हो क्या!! हुंह! मुंह उठाये आ गये !
अरे नही !! इंटरवल में मूंगफली लाऊंगा न! ( हलकी मस्ती, मुस्कराहट के साथ)
लड़की को भी मुस्कुराना ही पड़ा !!

हाल में दोनों साथ में इंटरवल में मूंगफली खा रहे थे :-)
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फिल्म में गूंजा और चन्दन की शादी अंततः हो जाती है:-)

रियलिटी में भी दो दिल कुछ पलों के लिए धडकते हैं :-) :P


Monday, August 17, 2015

जुगाड़

बात उन दिनों की है, जब फाके की जिंदगी चल रही थी. पार्ट 1 में देवघर कॉलेज में पढ़ रहे थे शायद | उन दिनों बिहार (तब झारखण्ड का नही बना था) में प्राइवेट नौकरी का कोई ज्यादा स्कोप नही था। कॉलेज के साथ सहारा इंडिया के कमीशन एजेंट का भी कार्य करते थे, साथ में ढेरों ट्यूशन तो थे ही पर फिर भी पैसे इतने कम होते की कोई फ्यूचर ही नही दिखता था । हाँ सरकारी नौकरी की वेकेंसी भी बहुत कम निकला करती थी । 50-60 सीट का बैंक क्लर्कस ग्रेड आता था !!

हाँ तो एक दिन कहीं न्यूज़ पेपर में नेशनल स्कूल ऑफ़ बैंकिंग मुम्बई का एड दिखा ! सिर्फ 400/- में पोस्टल कोचिंग दे रही थी, यानी वो दो महीने तक लगातार स्टडी मटेरियल भेजते !! पर 400 का जोगाड़ प्रॉब्लम था ! एवैं एक दिन अपने एक मित्र से कह रहे थे कि इसको करना अच्छा रहता ! बस वो कह बैठा एक काम कर मैं 100/- देता हूँ तू बस मेटेरियल का फ़ोटो स्टेट करने देना!! 

मेरी तो बांछे खिल गयी ! तिकड़म की गोटी फिट हो गयी ! अब मैंने अलग-अलग चार लोगो से बात की सबसे 100-100 लिए, मेटेरियल आ गया !! हर को समय से फ़ोटो स्टेट करने भी दे दिया !!

तो ऐसे थे भैया !! 
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हाँ फिर अंतिम में एक और दोस्त 50/- में पूरा मेटेरियल का फोटो कॉपी लेने को राजी हो गया!

उस दिन उस पैसे से पांचो ने एक साथ मूवी देखी शंकर टॉकीज में, चिनिया बादाम के साथ!

अंतिम में पेट के गुड़ गुड़ को शांत करने के लिए सबको बता दिए क़ी क्या गुल खिलाये थे मैंने !

हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा :-D!



Monday, August 3, 2015

अमिय प्रसून मालिक के शब्दों में "हमिंग बर्ड"


आज ही, 'फेसबुक' पर बहुतेरों के चहेते मुकेश कुमार सिन्हा जी की 'हम्मिंग बर्ड' मिली. पुस्तक का कलेवर ही मुग्ध करनेवाला है; और 'हिन्द-युग्म' ने यहाँ भी अपनी साफ़गोई दर्ज़ की है. अभी फिर हम किताब के भीतर भी चले चलेंगे.
मनोजगत को सूक्ष्मता से विश्लेषित करती कई पूर्ण रचनाओं का समृद्ध और सशक्त संसार है यह पुस्तक.

एक आम आदमी शब्दों को निचोड़कर जब मानवीय मूल्यों का चित्रण शब्दों से ही करना चाहता है, मेरी समझ में तभी 'हमिंग बर्ड' जैसी क़िताब का आगमन तय होता है. मुकेश जी ने प्रायः रचनाओं के साथ न्याय करना चाहा है, जिससे यह एक पठनीय सामग्री बन गयी है.

सच तो यह है कि कुछ कविताओं का आस्वादन करते- करते ऐसा जान पड़ता है कि हम उस परिदृश्य का हिस्सा बन गए हैं जहाँ यह शब्द- चित्रण चल रहा है, और यही इन कविताओं की निर्विवाद सार्थकता है.

एक बानगी 'महीने की पहली तारीख़' में है, जिससे शायद ही कोई मध्यवर्ग अछूता हो...
''हर महीने
का हर पहला दिन
दिखता है एक साथ
रहती है उम्मीद
बदलेगा दिन
बदलेगा समय
दोपहर की धूप हो जाएगी नरम
ठंडी गुनगुनाती हो पाएगी शाम...''
ठीक ऐसे ही, जब आगे 'उदगार' का पाठ होता है, रिश्तों में अपनी धाक जमाने वाले एहसासों का ताना- बाना दिखता है कि जो सात फेरों में जज़्ब वायदे हैं, कहाँ उनके आगे कोई उछृंखल भाव अपनी पैठ कभी स्थायित्व के साथ कर पाता है...
''याद नहीं फेरों के समय लिए गए वायदे
पर फिर भी हूँ मैं उसका...''

मुकेश जी की कविताएँ आम आदमी की ज़िन्दगी से ज़्यादा बातें करती हैं, और उन्हीं वार्तालापों में अपनी सटीक और सार्थक उपस्थिति बिना किसी अवरोध के जड़ती चलती है. आपकी कविताओं का जो सबसे सफल पहलू मैं समझता हूँ, वो एक मध्यम- वर्ग का शोषित और स्वयं से भरसक ज़्यादा दोहन किए हुए एहसासों का खाका है, जो बड़े ही चालू शब्दों से सजाया गया है.
इसी कड़ी में एक कविता आती है, ''पगडण्डी'' जो गोया सच से स्वयं का साक्षात्कार- सा है, जिससे शायद ही कोई मनुज अपने जीवनकाल में कभी बचा हो. बानगी तो देखिए---
''कोई नहीं
नहीं हो तुम मेरे साथ
फिर भी
चलता जा रहा हूँ
पगडंडियों पर
अंतहीन यात्रा पर
कभी तुम्हारा मौन
तो, तुम्हारे साथ का कोलाहल
जिसमें होता था
सुर व संगीत
कर पाता हूँ, अभी भी अनुभव
चलते हुए, बढ़ते हुए
तभी तो बढ़ना ही पड़ेगा...''

इन सबके अलावा, कुछ कविताओं के अंत और वो काव्य स्वयं बहुत ही निराश भी करते हैं. अगर आप संवेदना को दिनचर्या में घोलकर जियें तो यह एक अच्छी कोशिश है, मगर एहसासों के पतवार में रबड़ के टायर की मौजूदगी सालती है. मुकेश जी को कुछ कविताओं का अंत प्रभावशाली बनाना चाहिए, जहाँ वो चूक गए हैं. साथ ही, कुछ को किसी और संग्रह में तरजीह दी जानी चाहिए, ताकि आपकी बातों की गहराई चलायमान रहे; और यहाँ फिसल जाने से वो तारतम्य भी टूटा ही है. उम्मीद है, इस पर वे आगे ज़रूर ध्यान रखेंगे, और संख्या से ज़्यादा गुणवत्ता को तवज़्ज़ो देंगे...पर तब तक के लिए इस क़िताब की ख़रीद अच्छे खयालातों को बढ़ावा देना है.

प्रसंगवश:- मार्केटिंग के ज़माने में मुकेश जी ने अपनी इस पुस्तक में इस बाज़ारू रवैय्ये को सफलतम रूप से भुनाया है, और जब पुस्तक की कीमत पर ही उसके रचनाकार की सुन्दर हस्तलिपि में 'हस्ताक्षर' जिसे दुनिया 'ऑटोग्राफ' कहती है, मिल जाए तो सुन्दर पृष्ठ सज्जा वाली इस किताब को लेने का सौदा बुरा नहीं है.

क़िताब से जुडी सभी शख़्सियत को शुभकामनाएँ!


आलोचना ब्लॉग पर भी इस समीक्षा को पढ़ सकते हैं

नीता पौडवाल के कमरे से, उनके द्वारा भेजी हुई

Tuesday, July 28, 2015

नमन व श्रद्धांजलि कलाम साहब को !! (27 जुलाई 2015)

रोहित रूसिया जी के फेसबुक वाल से साभार

याद आ रहा वो कीमती क्षण

प्रधानमन्त्री कार्यालय में वाजपेयी जी के कार्यकाल में, एक सामान्य दिन के तरह मैं पहले लिफ्ट में घुसा था सेकंड फ्लोर पर चाय पीने के लिए तभी दूर से आते कलाम साहब को देख किसी ने दरवाजे में हाथ डॉल कर लिफ्ट रोका . मुझे कुछ भी नही पता था, एक दम से साथ आकर खड़े हो गए एक घुंघराले लंबे वाल वाले शख्सियत ! उन्हें पहले तल पर जाना था पर उन्होंने बटन नही दबाया ! लिफ्ट सीधे सेकण्ड फ्लोर पहुंची!! बाहर निकलने को हुए तो गलती का अंदाजा हुआ !! डरते डरते मैंने उन्हें फिर फर्स्ट फ्लोर छोड़ा !!

कहीं अंदर तक भिंगो गया वो क्षण !!
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नमन व श्रद्धांजलि कलाम साहब को !!

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बहती हवा सा था वो, उड़ती पतंग सा था वो
कहाँ गया उसे ढूँढ़ो
हमको तो राहें थी चलाती
वो खुद अपनी राह बनाता
गिरता संभलता, मस्ती में चलता था वो
हमको कल की फ़िक्र सताती
वो बस आज का जश्न मनाता
हर लम्हें को खुलके जीता था वो
कहाँ से आया था वो, छू के हमारे दिल को
कहाँ गया उसे ढूँढ़ो
सुलगती धूप में छाँव के जैसा
रेगिस्तान में गाँव के जैसा
मन के घाव पे मरहम जैसा था वो
हम सहमे से रहते कुए में
वो नदियाँ में गोते लगाता
उल्टी धारा चीर के तैरता था वो
बादल आवारा था वो, यार हमारा था वो
कहाँ गया उसे ढूँढ़ो
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गीत स्वानंद किरकिरे, शान-शांतनु मोइत्रा के आवाज में 3-इडियट्स का ये गाना कलाम साहब के लिए सुनने का दिल कर रहा !!

उम्मीद है लोग इसको गलत तरीके से नही लेंगे

पता नही क्यों इसके बोल कलाम साहब के जिंदादिली और राष्ट्रभक्ति पर आज के नए दौर में फिट करते हुए लगती है !!